महान धनुर्धर और गुरु भक्त एकलव्य की कहानी

महाभारत काल में जहाँ बड़े बड़े योद्धाओं को याद करके भारत के पराक्रमी इतिहास को याद किया जाता है वहीं एकलव्य की कहानी को याद करके एक ऐसे शिष्य को भी याद किया जाता है जिसने अपने गुरु को गुरु दक्षिणा के रूप में अपने जीवन से भी प्रिय वस्तु दे दी थी |

एक धनुर्धर के लिए उसके अंगूठे का कितना महत्व है ये तो कोई तीरंदाज ही बता सकता है | लेकिन भारत के इतिहास में ये वो समय था जब शिष्य के लिए गुरु भक्ति से बड़ा कुछ भी नहीं था |

मुझे बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होता अगर गुरु द्रोण एक्लव्य से उसके अंगूठे की बजाए उसके प्राण मांग लेते और एक्लव्य एक क्षण की भी देरी किये बिना वो भी उन्हें दे देते |

परन्तु गुरु द्रोण ने तो प्राणों से भी प्रिय वस्तु मांग ली थी |

एक्लव्य ने उस समय में अपने शिष्य होने का कर्तव्य कुछ इस तरह से निभाया था कि उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता |

लेकिन अगर गुरु द्रोण भी अगर एक्लव्य से वो परीक्षा नहीं लेते तो आज एकलव्य की कथा को इस तरह गुरु शिष्य की एक प्रेरणादायक कहानी के रूप में कोई याद नहीं रखता |

और दुनिया के सामने अपने गुरु के लिए समपर्ण का वो भाव कभी नहीं आ पाता |

प्राचीन काल में समाज में बहुत सी कुरुतियां थी जैसे कि गुरु द्रोणाचार्य जैसे महान गुरु सिर्फ राज परिवार के शिष्यों को ही युद्ध शिक्षा देते थे |

इसी वजह से एकलव्य जैसा एक योद्धा वो शिक्षा लेने से वंचित रह गया जिसे वो हासिल कर सकता था | लेकिन उस समय जो भी हुआ उसकी वजह से ही एकलव्य का नाम इतिहास में अमर हो गया |

अगर एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा ले लेता और अर्जुन से भी महान धनुर्धर बन जाता तो हो सकता है इतिहास कुछ अलग होता | हो सकता है महाभारत के युद्ध में वो भी कौरवों का साथ देता और धर्म का साथ देने वालों को ओर भी ज्यादा क्षति उठानी पड़ती |

क्यूंकि कर्ण का उदहारण हमारे सामने है | कर्ण जैसा दानवीर दुनिया में कोई नहीं हुआ और ना ही उस जैसा कोई पराकर्मी था लेकिन उस युद्ध में अधर्म का साथ देने के कारण, कर्ण को भी उस युद्ध में मृत्यु का सामना करना पड़ा |

संसार में कोई भी सदा के लिए नहीं रहता लेकिन आप जीवन जीते हुए क्या करते हैं इसे हमेशा याद किया जाता है |

एकलव्य को अगर गुरु द्रोण से शिक्षा मिली होती तो वो क्या करते इसका जवाब कोई नहीं जानता लेकिन एकलव्य ने जो किया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता |

आइए एक्लव्य के जीवन को थोड़ा विस्तार से समझते हैं और आपको एकलव्य की पूरी कहानी बताते हैं |

वीर एकलव्य की कहानी

एकलव्य की कहानी
एकलव्य की कहानी

एक्लव्य के पिता का नाम हिरण्‍यधनु था, हिरण्‍यधनु एक्लव्य को जीवन में हमेशा सफलता पाने के लिए प्रेरित करते थे | एक्लव्य को धनुर्विद्या सीखने का बहुत शौंक था और उन्हें धनुष बाण से बहुत प्रेम था |

लेकिन एक्लव्य जहाँ जंगल में रहते थे वहां उन्हें उच्च दर्जे की धनुर्विद्या नहीं मिल सकती थी | इसलिए धनुष बाण की विद्या सीखने के लिए एक्लव्य गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में गए |

एकलव्य जानते थे कि गुरु द्रोण के अलावा कोई ओर उसे वो शिक्षा नहीं दे सकते |

इसलिए एकलव्य ने द्रोणाचार्य के सामने उसे शिक्षा देने की इच्छा जाहिर की | |

बहुत से लोग कहते हैं कि द्रोणाचार्य ने जिस तरह सूत पुत्र होने की वजह से कर्ण को शिक्षा नहीं दी उसी तरह वो एक्लव्य को भी जाति के कारण शिक्षा नहीं देना चाहते थे |

कुछ लोगों का कहना था कि द्रोण केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे |

जबकि कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने एकलव्य को इसलिए शिक्षा नहीं दी क्यूंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दिया था कि वे केवल राजभवन के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे | जबकि एक्लव्य राजकुमार ना होकर जंगल में रहने वाला एक आम व्यक्ति था |

इसी कारण से गुरु द्रोणाचार्य ने एक्लव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया |

लेकिन एक्लव्य धुन का पक्का था उसने इरादा कर लिया था कि वो द्रोण को ही अपना गुरु बनाएगा |

अपने इसी इरादे के कारण उसने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और वन में ही उसके सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर दिया |

अपने गुरु के प्रति निष्ठा और धुन का पक्का होने वजह से उसने वो विद्याएँ सिख ली जो उसे गुरु द्रोण भी नहीं सीखा पाते |

एकलव्य की धनुर्विद्या

एक बार की बात है जब गुरु द्रोणाचार्य, पांडव और कौरव वन में धनुर्विद्या का अभ्यास करने के लिए गए थे | उस वक़्त गुरु द्रोणाचार्य के साथ एक कुत्ता भी था जो उनसे कुछ आगे निकल गया था | वो कुत्ता जंगल में एक्लव्य के फटे कपडे और खुले बाल देखकर उस पर भोंकने लगा |

उस समय एक्लव्य ने कुत्ते को चुप कराने के लिए इस तरह से कुत्ते के मुँह में बाण मारे जिससे उसका भोंकना बंद हो गया | लेकिन एक्लव्य ने बाण कुछ इस तरह से चलाए थे कि कुत्ते को बिलकुल भी चोट नहीं लगी और उसका भोंकना भी बंद हो गया |

जब वो कुत्ता गुरु द्रोणाचार्य और अन्य शिष्यों के पास पहुंचे तो उस कुत्ते को देखकर सब हैरान रह गए |

तब अर्जुन ने कुत्ते को देखकर कहा- गुरुदेव, यह विद्या तो मैं भी नहीं जानता। यह कैसे संभव हुआ? आपने तो कहा था कि मेरी बराबरी का दूसरा कोई धनुर्धारी नहीं होगा, किंतु ऐसी विद्या तो मुझे भी नहीं आती।’

द्रोणाचार्य ने आगे जाकर देखा तो वहा हिरण्यधनु का पुत्र गुरुभक्त एकलव्य था।

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एकलव्य की गुरुभक्ति

द्रोणाचार्य ने पूछा- ‘बेटा! यह विद्या कहां से सीखी तुमने?’

तब एक्लव्य ने द्रोणाचार्य को बताया कि ये विद्या उसने उनसे ही सीखी है | एक्लव्य ने बताया कि किस तरह से मूर्ति को समक्ष रखकर उसने वो विदया ग्रहण की |

इस पर गुरु द्रोणाचार्य बहुत खुश हुए लेकिन ये उनकी चिंता का विषय भी बन गया था |

क्यूंकि गुरु द्रोणाचार्य  ने अर्जुन को भी वचन दिया था कि वो उसे विश्व का सबसे महान धनुर्धर बनाएंगे | लेकिन जिस तरह से एक्लव्य ने अपने बाणों से उस कुत्ते को नुक्सान पहुंचाए बिना भर दिया था और वो भी सिर्फ गुरु द्रोणाचार्य  की मूर्ति को समक्ष रखकर |

इससे द्रोणाचार्य को इस बात का डर लगने लगा था कि कहीं वो अर्जुन से श्रेष्ठ ना बन जाए |

ऐसे में द्रोणाचार्य ने एक्लव्य से कहा कि तुमने मेरी मूर्ति को सामने रखकर मुझे गुरु मानकर मुझसे शिक्षा ग्रहण की है |

अब तुम्हे मुझे गुरु दक्षिणा देनी होगी |

इस पर एक्लव्य ने भी बिना किसी शंका के कहा कि वो कुछ भी गुरु दक्षिणा देने के लिए तैयार है |

तब द्रोणाचार्य ने एक्लव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया |

एकलव्य फोटो

उस समय में गुरु को ईश्वर के समान माना जाता था इसलिए एक्लव्य ने बिना देरी किये एक क्षण में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य के समक्ष रख दिया |

एक्लव्य की गुरु भक्ति की मिसाल आज तक कोई नहीं बना पाया | जिस अंगूठे से वो दुनिया का सबसे महान धनुर्धर बन सकता था, जिस अंगूठे से वो पूरी दुनिया को भी जीत सकता था | एक ही पल में अपने गुरु के कहने पर उसने उस अंगूठे को अपने गुरु के सामने अर्पित कर दिया |

निषाद के राजा बने एक्लव्य

हर जगह बताया जाता है कि एक्लव्य हिरण्‍यधनु के पुत्र थे लेकिन असल में एक्लव्य देवश्रवा के पुत्र थे जो कुंती और वासुदेव के भाई थे | इस तरह से एक्लव्य कृष्ण के भाई थे |

बचपन में वो जंगल में खो गए थे जिसके बाद हिरण्‍यधनु ने एकलव्य को अपना पुत्र बना लिया था | हिरण्‍यधनु की मृत्यु के बाद एक्लव्य निषाद के राजा बने थे | एक्लव्य और उनकी जनजाति जरासंध के सहयोगी थे | क्यूंकि उनके पिता हिरण्‍यधनु भी हमेशा से जरासंध के सहयोगी रहे थे |

जरासंध भगवान कृष्ण का धुर विरोधी था | उसने जब मथुरा पर आक्रमण किया तो एक्लव्य ने इस लड़ाई में जरासंध का साथ दिया था |

कृष्ण ने किया था एक्लव्य का वध

रुकमणी भगवान कृष्ण से प्रेम करती थी और वो उनसे विवाह करना चाहती थी | किन्तु रुकमणी का भाई रूकमण इसके विरुद्ध था | जरासंध का सहयोगी होने और उसके क्रोध से बचने के लिए वो ये विवाह नहीं होने देना चाहता था |

कृष्ण ने एक्लव्य का वध कैसे किया इसके बारे में कथाओं में अलग अलग से बताया गया है लेकिन ये सत्य है की कृष्ण ने ही एक्लव्य का वध किया था | जब कृष्ण रुकमणी को भगा कर ले जा रहे थे तो जरासंध, शिशुपाल और एक्लव्य ने उनका पीछा किया |

एक्लव्य यादव सेना पर जबरदस्त प्रहार कर रहे थे ऐसे में भगवान कृष्ण ने क्रोध में आकर एक पत्थर से एक्लव्य का वध कर दिया था |

जबकि कुछ जगह वर्णित है कि जब युधिस्टर के यग के समय भीम ने जरासंध का वध कर दिया तो एक्लव्य इससे बहुत क्रोधित हो गया | उसने द्वारका पर आक्रमण किया और भगवान कृष्ण के साथ हुए उस युद्ध में वो मारा गया |

वहीं कुछ कथाओं के अनुसार उस युद्ध में वो बच गया और दुर्योधन का पास आ गया | उन दोनों में मित्रता हो गयी और दुर्योधन ने उसे हस्तिनापुर के जंगलों का राजा बना दिया |

जब दुर्योधन के आदेश से उसने कृष्ण पुत्र सम्बा को मरने की कोशिश की तब कृष्ण ने उसका वध कर दिया |

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Mohan

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