त्रैगुण्योद्भवम् अत्र लोक-चरितम् नानृतम् दृश्यते। नाट्यम् भिन्न-रुचेर जनस्य बहुधापि एकम् समाराधनम्।
संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है ऐसा मन जाता है की संस्कृत से ही बहुत सारी भाषाओं का जन्म हुआ है और पुरे विश्व में केवल संस्कृत ही शुद्ध भाषा है जिसका अर्थ के केवल संस्कृत भाषा ही खुद उपजी हुई है |
ये किसी और भाषा का मेल नहीं है और न ही कोई दो या तीन भाषाओँ को मिला कर बनी है जितनी पुरानी और विशाल संस्कृत भाषा है उतने ही विशाल संस्कृत के विद्वान् है जिन्हे आज पुरे विश्व में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।
आज हम जिनके बारे में बात करने जा रहे है उन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। वो संस्कृत के विद्वान् होने के साथ साथ देवी काली के परम् भक्त एवं अपनी अर्धांगिनी के सच्चे प्रेमी थे।
तुलसीदास को रामचरितमानस के लिए तो कालिदास को अभिज्ञान शकुंतलम के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है |

कालिदास जी, एक ऐसे कवि जिन्होंने पुरातन समय में ही अपनी रचनाओं से एक नए युग की शुरुआत कर दी थी। कालिदास जी का नाम आज भारत के सबसे पूजनीय और महान कवियों में लिया जाता है जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से आज भी हमारी संस्कृति और प्राचीन भाषा संस्कृत को हमारे बीच जीवित रखा है।
कालिदास जी उन चुनिंदा कविओं में से हैं जिन्होंने अपनी ज्यादातर रचनाये संस्कृत में रची। आइये हम इन महान और ज्ञानी साहित्यकार के बारे में और अच्छे से जानते है।
जन्म और मतभेद
महाकवि कालिदास जी का जीवन बेहद कठिनाइयों भरा था। साहित्यकारों और इतिहासकारों के बीच अक्सर इनके जन्म को लेकर मतभेद बना रहता है।
क्योकि इनके जन्म को लेकर कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते इसी वजह से आज तक इनके जन्म कोई लेकर आज तक इतिहासकार किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए है।
ऐसे कहा जाता है के इनका जन्म गुप्त काल के समय हुआ होगा क्योकि इन्होने “मालविकाग्निमित्रम्” नाम का एक नाटक लिखा जिसमे इन्होने द्धितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक के रूप में पेश किया तो इससे कुछ इतिहासकारों ने ये अनुमान लगाया के इनका जन्म 170 ईसा पूर्व हुआ होगा क्योकि अग्निमित्र का शाशन इसी समय दौरान था।
जबकि दूसरी तरफ कुछ इतिहासकार इनका जन्म का अनुमान 150 ईसा पूर्व 450 ईस्वी का लगते है। हरेक इतिहासकार के अलग अलग मत है क्योकि इनके जन्म का कोई भी प्रमाण नहीं है।
बाणभट्ट जी ने अपनी रचना “हर्षचरितम्” में महाकवि कालिदास जी का ज़िक्र किया है जो छड़ी शताब्दी में थे और इसी समय के पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख में भी इनका ज़िक्र है तो ये बात तो संभावित तोर पर कहि जा सकती है के कालिदास जी का जन्म इसी समय दौरान हुआ है।
ऐसे ही उनका जन्म स्थान को लेकर भी मतभेद बने हुए है। उनकी एक प्रसिद्ध रचना “मेघदूत” में उन्होंने उज्जैन का ज़िक्र किया है और उन्होंने यह ज़िक्र कई बार किया है तो इसी संदर्भ को लेकर बहुत सरे इतिहासकारों ने उनका जन्म उज्जैन का बताया है तो दूसरी तरफ बहुत सारे इतिहासकार उनका जन्म उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ मानते है।
इनके माता पिता जी के बारे में भी कोई प्रमाण नहीं है विभिन्न विभिन्न जगहों पर इनके माता पिता जी के बारे में भी अलग अलग लिखा है जैसे भविष्यपुराण में इनके पिता जी का नाम श्रीधर बताया है और रहीम जी ने अपने दोहों में भी कालिदास जी की माता जी का ज़िक्र किया उन्होंने अपने दोहों में इनकी माता जी का नाम हलीमा बताया है।
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महाकवि कालिदास जी का विवाह एवं ज्ञान प्राप्ति
राजकुमारी विद्योत्तमा एक बहुत ही सुशिल कन्या थी। वो रक गरीब परिवार से संबंध रखती थी। वो शस्त्र विद्या में निपुण थी और वो चाहती थी के वो उसी शूरवीर से विवाह करेगी जो उन्हें शस्त्र विद्या में हरा दे। उनके साथ विवाह करने के लिए बहुत सरे योद्धा आये पर सबको राजकुमारी ने पराजित कर दिया।
तो उन राजकुमार योद्धाओं ने राजकुमारी से बदला लेने के लिए कालिदास और राजकुमारी का शास्त्रार्थ करवाया, राजकुमारी शास्त्रार्थ में षड़त्र विद्या और युद्ध से संबंधित बहुत सरे प्रश्न मूक होकर पूछती थी जिसका जवाब ज्यादातर योद्धा नहीं दे पाते थे।
जब कालिदास और राजकुमारी का शास्त्रार्थ हुआ तो राजकुमारी ने एक प्रश्न पूछ जिसमे उन्होंने अपना हाथ कालिदास को दिखाया जैसे के वो उन्हें मरना चाहती हो , इसके जवाब में कालिदास ने अपनी मुट्ठी दिखा दी।
असल में राजकुमारी के हाथ दिखने का अर्थ मरने से नहीं था बल्कि वह यह पूछ रही थी पांचो इन्द्रियों से बढ़कर क्या है। जब कालिदास ने मुट्ठी दिखाई तो राजकुमारी को लगा के कालिदास ने जवाब में बताया के मस्तिष्क सभी इन्द्रियों से बड़ा होता है। भले ही इन्द्रियां अलग अलग हो पर उन्हें काबू हमारा मष्तिष्क करता है। इस जवाब से प्रभावित होकर राजकुमारी ने कालिदास से विवाह कर लिया।
विवाह के कुछ समय पश्चात राजकुमारी को कालिदास के मंदबुद्धि होने का पता चला, क्योकि वो अक्सर ही भांत भांत प्रकार की हरकतें किया करते थे।
एक बार तो कालिदास ने अपनी मूर्खता का प्रमाण देते हुए उसी डाली को काट दिया था जिसपर वो बैठे थे क्योकि उन्हें सही गलत का अनुमान नहीं था।
इन्ही सब हरकतों से परेशान होकर राजकुमारी ने कालिदास को बहुत लताड़ा और उन्हें घर से बाहर निकल दिया और कहा के वो तब तक घर में दोबारा प्रवेश न करे जब तक उन्हें ज्ञान नहीं हो जाता उन्हें सही गलत की समझ नहीं हो जाती।
यह सुनकर और राजकुमारी का यह वर्ताव देख कर कालिदास वह से चले गए और उन्होंने प्रण किया के वो तभी वापिस आएंगे जब वो ज्ञानी हो जायेगे।
वो जंगलों में चले गए और माता काली की उपासना करने लग गए। कई वर्षों तक साधना करने के बाद देवी काली ने उन्हें वरदान दिया और उन्हें आत्म ज्ञान करवाया। जब कालिदास को ज्ञान हो गया तब वह अपने गांव वापिस आये। पत्नी के लताड़ने के बाद वो एक ऐसे कवि और रचनाकार बने जैसा अब तक कोई नहीं बन पाया।
महाकवि की रचनाएँ
महाकवि ने बहुत साडी रचनाएँ की है उन्होंने कविताएं, नाटक, अदि लिखे हैं और उनकी हरेक रचना बहुचर्चित रही है। आज भी उनकी रचनाओं को बहुत आदर सम्मान से पढ़ा जाता है। क्योकि उनकी रचनाओं में प्राचीन भारत और प्राचीन समाज की झलक नज़र आती है तो उनकी रचनाओं को पढ़कर इतिहासकार और सहित्यकार प्राचीन भारत को और भी ज्यादा साफ नज़रों से देख पाते हैं।
कालिदास की पहली रचना “मालविकाग्निमित्रम्” है जिसमे उस समय के राजा अग्निमित्र की कहानी है। कहानी में अग्निमित्र एक कन्या मालविका के चित्र को देख कर ही उससे प्रेम कर बैठता है , मालविका एक नौकर की बेटी होती है। इस बात का पता जब अग्निमित्र की पत्नी को लगता है तो वो मालविका को कैद करवा देती है पर कहानी अपना मोड़ तब लेती है जब यह पता चलता है के मालविका एक नौकर की नहीं बल्कि एक राजा की पुत्री है।
कालिदास की एक ऐसी रचना जिससे वो आज भी विश्व प्रसिद्ध हैं उनकी इस रचना को भारत की दूसरी भाषाओँ के इलावा विदेशों में भी अंग्रेजी, जर्मन , और न जाने और जितनी भाषाओँ में अनुवाद किया गया। महाकवि की ऐसी रचना जिसके बाद उन्हें महाकवि का दर्ज़ा प्राप्त हुआ वो थी “अभिज्ञान शाकुन्तलम्“।
यह कालिदास की दूसरी रचना थी। यह एक काव्य नाटक था जिसमे राजा दुष्यंत की कहानी है जो शकुंतला से प्रेम करने लग जाता है। शकुंतला महान ऋषि विश्वामित्र और मेनका की बेटी थी। राजा दुष्यंत और शकुंतला प्रेम में लीन होकर भगवान को साक्षी मान कर जंगलों में ही गंधर्व विवाह कर लेते हैं।
विवाह के बाद राजा दुष्यंत अपने राज्य में वापिस आ जाते हैं। जंगलों में तपस्या कर रहे ऋषि दुर्वाशा को जब इस बात का पता चलता है तो वो क्रोधित हो जाते हैं और वो इस विवाह को अपना अपमान मन लेते हैं और शकुंतला को श्राप दे देते हैं की जिसके लिए तुम्हें दुर्वाशा को छोड़ा वो पुरुष तुम्हे भूल जायेगा।
शकुंतला ऋषि से बहुत प्राथना करती है के ऐसा श्राप न दिया जाये वो बहुत रोटी है तो ऋषि के दिल में थोड़ी दया आ जाती है तो वो श्राप को थोड़ा कम करके बताता है के अगर ये अंगूठी राजा को दिखाई जाएगी तो राजा को सब याद आ जायेगा।
शकुंतला वो अंगूठी लेकर राजा की राज्य की तरफ चल पड़ती है। श्राप के मुताबिक राजा दुष्यंत अपने राजमहल पहंचते ही सब भूल जाता है और कहानी में दिल पसीज देने वाला मोड़ तब आता है जब शकुंतला राजा को दिखने से पहले ही वो अंगूठी खो देती है और उसे पता चलता है के वो गर्भवती है।
राजमहल पहंच कर वो राजा को सब बताती है पर राजा सब भूल चूका है वो राजा के सामने लाख कोशिश करती है पर राजा को कुछ याद नहीं आता और वो उसे अपनाने से मना कर देता है वो इस बात से भी मुकर जाता है के शकुंतला के गर्भ में उसका बच्चा है।
भगवान का चमत्कार तब होता है जब एक मछवारे को वो अंगूठी मिल जाती है और वो राजा के सामने आती है तो राजा को सब कुछ याद आ जाता है और वो शकुंतला और उसके बच्चे को अपना लेता है।
यह नाटक वियोग, दुःख, प्रेम, करुणा रस, सिंगार रस से भरा हुआ है।
कालिदास की रचनाएँ
- महाकाव्य – रघुवंश, कुमारसंभव।
- खंडकाव्य- मेघदूत, ऋतुसंहार।
- अभिज्ञान शाकुंतलम्
- मालविकाग्निमित्र
- विक्रमोर्वशीय
- श्रुतबोधम्।
- श्रृंगार तिलकम्।
- कर्पूरमंजरी।
- पुष्पबाण विलासम्।
और भी बहुत सारी रचनाये है। कालिदास जी अपनी रचनाओं में सिंगार रस का इस्तेमाल बहुत अच्छे से करते थे वो हमेशा सरल भाषा का प्रयोग करते थे। उनकी रचनाओं में प्रकृति की तरफ उनका प्रेम साफ नज़र आता था क्योकि वह प्रकृतिक दृश्यों को बहुत बारीकी से और हु-ब-हु पेश करते थे।
और सबसे खास बात वो अपनी रचनाओं में नैतिक मूल्यों, नैतिक कर्तव्यों, व्यक्तिगत चरित्र चित्रण, उस समय के समाज और लोगों के स्वाभाव को बहुत अच्छे से रचते थे उन्हें अच्छे से पेश करते थे जो कोई भी कवि आसानी से नहीं कर सकता।
महाकवि और महासम्राट का रिश्ता
महाकवि कालिदास, महासम्राट विक्रमादित्य के बहुत प्रिय थे, अक्सर ही कालिदास विक्रमादित्य के दरबार में अपनी रचनाएँ सुनाने आते रहते थे।
कालिदास शक्ल से सूंदर नहीं थे तो अक्सर ही उन्हें समाज में अपने रूप को लेकर दूसरे लोगो के सामने लज्जित होना पड़ता था। एक बार वो विक्रमादित्य के दरबार में अपनी रचना सुना रहे थे।
उनकी रचना को सुनकर दरबारी उनकी खूब प्रशंशा कर रहे थे तो अचानक महाराज ने कालिदास को रोका और पूछा के
“महाकवि जितनी खूबसूरत आपकी रचनाये है उतना खूबसूरत आपका रूप क्यों नहीं है ?”।
इस बात का कालिदास ने कोई जवाब नहीं दिया और वो वह से चले गए।
एक शाम महाराज और कालिदास बगीचे में बैठे थे तो महाराज को प्यास लग गयी। उस समय महाराज के पास एक सोने की सुराही थी और एक मिट्टी का घड़ा था।
कालिदास ने महाराज को सोने की सुराही का पानी पिने के लिए दिया पर वो पानी ठंडा नहीं था तो कालिदास ने उन्हें मिट्टी के घड़े का पानी दिया तो वो पानी ठंडा था जिससे महाराज को तृप्ति हुई तो महाराज ने पूछा के ऐसा क्यों ? सोने की सुराही का पानी गर्म और मिट्टी के घड़े का पानी ठंडा क्यों है ?
तो कालिदास ने कहा के “जिस प्रकार पानी की शीतलता और मिठास उसके बर्तन पर निर्भर नहीं करती उसी तरह ज्ञान, बुद्धिमत्ता किसी भी व्यक्ति के रूप पर निर्भर नहीं करता”
उनका जवाब सुनकर महाराज चुप हो गए और भीतर ही भीतर शर्मिंदा महसूस हुए।
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महाकवि का निधन
जैसे जन्म को लेकर अलग अलग मतभेद रहे हैं उसी प्रकार कालिदास की मृत्यु को लेकर भी मतभेद बने हुए हैं। उनकी मृत्यु को लेकर कोई भी प्रमाण कहीं पर भी नहीं मिलते। कोई नहीं जनता के इस महाकवि ने अंतिम सांसे कहा ली और किस समय ली।
कालिदास भारत की संस्कृति के एक ऐसा हिस्सा हैं जिन्हे भारत के विशाल साहित्य से अलग करना मुश्किल है। वो भारत कर शुरुआती साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने आने वाले हज़ारों सालों तक कितने ही साहित्यकारों को प्रभावित किया है और उनकी प्रेरणा का स्त्रोत्र बने है और बनते रहेंगे। उनकी रचनाये न सिर्फ भारत में बल्कि पुरे विश्व में साहित्यकारों की पहली पसंद बनी हैं।
उनकी रचनाओं में सरलता और मनुष्य के भाव जिस तरह से पेश किये जाते थे वो आज के समय में कोई नहीं कर सकता। वो संगीत प्रेमी थे जिसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ नज़र आती है।
आज के दौर में उन जैसा सम्पन्न रचनाकार होना बहुत मुश्किल है। ऐसे सरल और दृढ साहित्यकार को हमर शत शत नमन है।