रबिन्द्रनाथ टैगोर के जीवन का सफर

Rabindranath Tagore Biography in Hindi – जब भी किसी भी राज्य,  भाषा या क्षेत्र में साहित्य की बात होती है तो उस सूची में एक नाम जरूर शामिल होता है. संस्कृत भाषा के साहित्य में जो स्थान महाकवि कालिदास जी का है, हिंदी भाषा के साहित्य में जो स्थान गोस्वामी तुलसीदास जी का है वैसा ही स्थान बंगाली साहित्य में इनका है । 

वो नाम, जब हम जन गण मन सुनते है तो हम अपने आप ही आदरपूर्वक खड़े हो जाते है और यही आदर हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश के नागरिक भी अपने राष्ट्र गान को देते है. हम बात कर रहे है उस साहित्यकार की जिसने साहित्यकारों की सूची में अपना उत्तम स्थान बनाया है.

जिसने भारत और बांग्लादेश देशों के राष्ट्र गान को लिखा , हम बात कर रहे है एक साहित्यकार, एक कहानीकार और एक चित्रकार की जो पहला गैर ब्रिटिश व्यक्ति बना जिसने नोबेल पुरुस्कार जीता. हम बात कर रहे है श्री रबिन्द्र नाथ टैगोर (रवींद्रनाथ टैगोर) की.  

Rabindranath Tagore Biography in hindi
रबिन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

रबिन्दर नाथ टैगोर जी एक परिपूर्ण शक्शियत के मालिक थे। उन्होंने अपने जीवन कल में बहुत सारे  दुःख झेले है । पर उनके जीवन की मुश्किल से मुश्किल घडी भी उन्हें निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती रहती थी और यही प्रेरणा उनकी रचनाओं में हमे साफ दिखाई देती है ।

रबिंदरनाथ जी को प्यार से गुरुदेव कहा जाता है। जीवन को सकारात्मक तरीके और सलीके से जीना ये गुरुदेव ने हमे बहुत अच्छे से समझाया है। आइये जानते हैं रबिन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय |

रबिन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय(Rabindranath Tagore Biography in Hindi)

ब्रह्मा समाज के नेता देबेन्द्र नाथ टैगोर उस समय फूले नहीं समाये जब उनके घर बेटे ने जन्म लिया। रबिन्द्र नाथ टैगोर जी का जनम 7 मई 1861 में कलकत्ता में हुआ. उनके पिता उस समय बंगाल में ब्रह्म समाज के नेता थे.

ब्रह्म  समाज उन दिनों बंगाल में बहुत प्रसिद्ध था, जो आम लोगो को उपनिषदों में लिखे हुए हिन्दू धरम के बारे में जानकारी देता था और आम लोगो तक हमारे प्राचीन और पावन ग्रंथों के विचार और शिक्षाएं उन लोगो तक पहुंचता था जिनको दूसरी प्राथमिक शिक्षा नहीं मिल पाती थी। 

रबिन्द्र नाथ टैगोर जब छोटे थे तब उनकी माता जी शारदा देवी जी का निधन हो गया था तो टैगोर जी को घर में रहते नौकरों ने पाला. टैगोर जी के पिता जी काम की सिलसिले में अक्सर बाहर ही रहते थे तो उनकी प्राथमिक शिक्षा घर से ही हुई.  

जब वो 17 साल के हुए तो उन्हें इंग्लैंड भेज  दिया गया. अभी उनकी पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई थी के साथ के  साथ उन्होंने  साहित्यक  गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था जिससे उनका ध्यान समाज सेवा और इंसानियत की सेवा की तरफ हो गया.  

देविजेन्द्र नाथ, रबिन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई थे वो भी एक कवि  एवं एक दार्शनिक थे. रबिन्दर नाथ के दूसरे भाई सत्येंद्र नाथ, पहले भारतीय थे जिने उस समय की भारतीय सिविल सर्विसेज में नौकरी मिली थी,  और रबिन्दर नाथ जी के भाई ज्योतिंदरनाथ एक संगीतकार और कहानीकार थे जबकि उनकी बहन स्वर्णकुमारी एक नावल लेखिका  थी. 

उन्हें लिखने का प्रारंभिक प्रोत्साहन अपने घर से ही मिला था  क्योकि उनके घर में उनके बड़े भाई बहन सब किसी न किसी रूप में साहित्य के साथ जुड़े हुए थे तो बचपन से ही उनका ध्यान साहित्य की तरफ हो गया।  

रविन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा (Rabindranath Tagore Education)

11 साल की छोटी उम्र में उन्होंने हिन्दू धर्म  और एक हिन्दू परिवार की परम्परा अनुसार जनेऊ धारण किया और इसके बाद  वो अपने पिता जी के साथ अलग अलग धार्मिक , ऐतिहासिक और साहित्यक जगह देखने  के लिए  भारत यात्रा पर निकल पड़े।  वो अपने पिता जी के साथ शांतिनिकेतन गए। 

टैगोर जी अमृतसर में भी लगभग एक महीने तक रहे और यहा से ही वो बाणी से प्रभावित हुए और यही से वो सीधा हिमाचल की डलहौजी नाम की जगह पर चले गए। उन्होंने इतिहास, भूगोल, विज्ञान, संस्कृत  जैसे भाषाओ को पढ़ा और सीखा और उन्होंने वही पर ही कालिदास को पढ़ा.

1878 में वो इंग्लैंड के एक स्कूल में भर्ती हो गए क्योकि पिता जी का आदेश था एक सफल बैरिस्टर बनने का. टैगोर जी ने लंदन में कानून की पढ़ाई की. उन्होंने महान लेखक Shakespeare’s के नाटक Coriolanus, Antony और क्लियोपैट्रा और इसके इलावा Religio Medici of Thomas बरौने को पढ़ा जिन्होंने टैगोर जी को बहुत प्रभावित किया. 

इंग्लैंड में उनका मन पढ़ाई में न लगा और वो बिना कोई डिग्री लिए वापिस अपने देश आ गए । इंग्लैंड रहते  उनके मन में  समाज भलाई की ऐसी तीव्र भावना जागी के वो ग्रामीण और गरीब लोगों के साथ ज्यादा समय बिताने लग गए ।  1883 में टैगोर जी की शादी मृणालिनी देवी से हुई और उनके 5  बच्चे हुए। 

इस समय वो सियालदा नाम की जगह पर रह रहे थे ये उस समय बंगाल राज्य का हिस्सा थी पर अब ये बांग्लादेश का हिस्सा है ।  वह पर गुरुदेव ने भारत के ग्रामीण  लोगो को बहुत करीब से देखा और यही रह कर उन्होंने गरीब और ग्रामीण बंगाली लोगो के जीवन को देखते हुए बहुत सारी लघु कथाएं भी लिखी। 

गुरुदेव को प्रकृति में बहुत रूचि थी वो खुद को हमेशा प्रकृति के नज़दीक रखना चाहते थे यही कारन था के जब वो शांतिनिकेतन आये तो उन्होंने वह पर स्कूल, लाइब्रेरी के साथ साथ एक सुन्दर बगीचा भी बनवाया। इन्ही सब से उन्हें अपना खर्चा उठाने के लिए आमदनी हो जाती थी और इसके इलावा उनको कुछ पैसे उनकी रचनाओं से भी मिल जाते थे। इन्ही पैसे में से ज्यादातर वो ग्रामीण लोगो और जरूरतमंद लोगों पर ही खर्च कर देते थे। 

गुरुदेव और बिजय उर्फ़ विक्टोरिआ (Rabindranath Tagore and Victoria)

विक्टोरिया का जिक्र किये बिना रबिन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय अधूरा सा है | गुरुदेव जब पेरू नाम के एक देश का भर्मण कर रहे थे तो उस देश का मौसम अनुकूल न होने की वजह से उनकी तबियत अचानक बिगड़ गयी. तो उन्हें वही पर ही अपनी आगे की यात्रा रोकनी पड़ी और उसी जगह पर कुछ समय आराम करने के लिए रुकना पड़ा।  यही समय था जब गुरुदेव विक्टोरिया से मिले थे  

विक्टोरिया अर्जेंटीना देश की रहने वाली थी वो पेशे से लेखिका थी।  उन्होंने गुरुदेव की रचना गीतांजी का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ रखा था जिससे वो बहुत प्रभिव हुई थी  और दोनों का मिलना महज़ एक इत्तेफाक ही था । 

गुरुदेव अक्सर अपनी कविताओं में बिजया का ज़िक्र करते थे, वो बिजया और कोई नहीं बल्कि यही लेखिका थी।  विक्टोरिया ने गुरुदेव को चित्रकारी के लिए प्रेरित भी किया और गुरुदेव ने लगभग 25 से ज्यादा रचनाये बिजया और उनकी संबंधो के ऊपर लिख दी थी।  बिजया और गुरुदेव का चिट्ठिओं का सिलसिला उनकी अंतिम दिनों तक चला था ।

उनका एक बहुत मशहूर गाना 

आमि चीनी गो चीनी, तोमार ए ओ गो बिदेशिनी, तूमी थाको सिंधु पारे, ओ गो बिदेशिनी.”

अर्थात समुन्द्र पार रहने वाली विदेशिनी में तुम्हे जनता हूँ

ये उन्होंने विक्टोरिया के ऊपर लिखा था। 

रबिन्दर नाथ टैगोर जी की रचनाएँ (Rabindranath Tagore Works)

1890 में टैगोर जी ने पहला कविता संग्रह मानसी लिखा इसके बाद 1891-1895 के बीच आधा दर्जन से ज्यादा कहानिया अपने कहानी संग्रह गल्पगुच्छा लिखा |

1901 में टैगोर जी शांतिनिकेतन आ गए और उन्होंने नैवेद्य नाम की पुस्तक लिखी.  शांतिनिकेतन में ही  कुछ समय बाद उनकी पत्नी और 2 बच्चों का निधन हो गया और 1905 में उनके पिता जी का निधन हो गया. इसके बाद 1906 में उन्होंने खेया नाम की पुस्तक लिखी.  

1913 में उन्हें उनके द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध कविता संग्रह गीतांजलि के लिए किंग जॉर्ज वि के हाथ से नोबेल पुरुस्कार मिला और वो पहले गैर ब्रिटिश नागरिक थे जिन्हे ये पुरुस्कार मिला था. इसके बाद उनकी यह महान रचना को बहुत सरे विदेशी लेखकों ने अपनी अपनी भाषाओँ में अनुवाद भी किया और ये सिलसिला आज तक चलता आ रहा है  

1919 के जलिआंवाला बैग के हत्याकांड के बाद उन्होंने Lord Chelmsford, और उस समय के British Viceroy of India को एक चिठ्ठी लिखी और दुःख व्यक्त किया और यही समय था जब उन्होंने अपना नाइटहुड सम्मान छोड़ दिया था क्योकि जलिआंवाला बाग़ का हत्याकांड जनरल डायर ने करवाया था और उन नाइटहुड अवार्ड अंग्रेज़ों ने 1905 में उनकी साहित्यक रचनाओं के लिए दिया था । 

टैगोर जी द्वारा लिखी रचनाओं की सूची: 

  • गीतांजलि 
  • वाल्मीकि प्रतिभा 
  • विसर्जन 
  • डाक घर 
  • भिखारनी 
  • गल्पगुच्छा  
  • काबुलीवाला  
  • अतिथि 
  • चतुरंगा 
  • शेषेर कोबिता  
  • चार ओढ़ाय 
  • नौकाडी घरे बैरे  
  • सोनार तारी  

इसके इलावा भी टैगोर जी ने बहुत ही प्रसिद्ध रचनाएँ लिखी. जिसमे लघु कथाएं, नाटक , पत्र, कवितायेँ शामिल हैं. उन्हें अपने कविता संग्रह गीतांजलि के लिए ही नोबेल पुरुस्कार मिला था   

गीतांजलि को पुरे विश्व में पढ़ा गया और साहित्य पसंद करने वालो ने बहुत सराहा. और गीतांजलि उनका सबसे लोकप्रिय रचना में शामिल हो गया  अगर ये कहा  जाये के उन्हें असली पहचान गीतांजलि से मिली तो ये कहना गलत नहीं होगा. इसके इलावा उनके काबुलीवाला को भी बहुत ज्यादा पसंद किया गया. उनकी रचना काबुलीवाला इतनी ज्यादा प्रसिद्द हुई के उसपर बहुत सारी फिल्मे और नाटकीय रूपांतरण किया गया.  

इनके इलावा उन्होंने चोकर बलि रचना से समाज में विधवाओं के साथ हो रहे भेद भाव को बहुत अच्छे से पेश किया. उन्होंने बिनोदनी के नजरिये से विधवा औरतों के हालातों को बहुत अच्छे से दिखाया।   

गुरुदेव और बांग्लादेश (Gurudev Relation with Bangladesh)

बांग्लादेश के बनने से पहले वो बंगाल का एक हिस्सा हुआ करता था ।  गुरुदेव का जन्म, बचपन वही गुज़रा और बांग्लादेश के साथ उनका रिश्ता कोई न्य भी था, उनकी दादा जी के समय से ही वो बंगलादेश से जुड़े हुए थे।  उनकी दादा जी द्वारकानाथ टैगोर जी ने अंग्रेज़ों से 1830 में पोतीसर नाम की जगह पर जमीन खरीदी थी  तभी से उनका परिवार यह रहने लग गया था ।  

गुरुदेव जी ने  

आमार शोनार बांग्ला, आमि तोमाए भालोबाशी… चिरोदिन तोमार आकाश, तोमार बाताश, आमार प्राने बजाए बाशी….” 

अर्थात 

“मेरा प्रिय बंगाल, मेरा सोने जैसा बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूँ… सदैव तुम्हारा आकाश, तुम्हारी वायु, मेरे प्राणों में बाँसुरी सी बजाती है…” 

कविता लिखी पर उन्हें क्या पता था के उनकी यह रचना एक दिन किसी देश का राष्ट्रगान बन जाएगी. 

दादा जी की जमींदारी होने की वजह से गुरुदेव का बांग्लादेश से रिश्ता है  आज भी उनकी लिखी रचनाएँ बांग्लादेशी स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं। 

टैगोर जी का नज़रिया

रबिन्द्रनाथ टैगोर जी बंगाली साहित्य और भारतीय साहित्य में एक अहम् स्थान रखते है. टैगोर जी मानवता को राष्ट्रवाद से हमेशा ऊपर रखते थे वे कहते थे “जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।” वो महात्मा गाँधी जी का बहुत सम्मान करते थे पर वो उनकी सोच से अलग सोच रखते थे। 

उनके हर विचार में परम्परावादी से ज्यादा तर्कशीलता नज़र आती थी क्योकि वह चीजों को प्रायोगिक नज़रिये से देखते थे। टैगोर जी ने ही महात्मा गाँधी जी को “महात्मा” की उपाधि दी थी.  

उन्होंने अपने पुरे जीवन कल में लगभग 30 देशों  की यात्रा की और उन्होंने हिंदी और बंगाली साहित्य को विदेशों तक पहुंचाया और इसी चीज से प्रभावित होकर प्रसिद्द अंग्रेजी कवी विलियम बटलर यीट्स ने उनका  प्रसिद्ध कविता संग्रह गीतांजलि को अंग्रेजी में अनुवाद करने की इच्छा जताई। ज्यादातर लोग उन्हें एक कवी के रूप में जानते थे पर कविता के साथ साथ उन्होंने बहुत सारे उपन्यास, कहानी संग्रह, यात्रा वृतांत और ड्रामा जैसी रचनाये भी की ।  

उन्होंने लगभग 2300 गीतों की रचना की जो ज्यादातर बंगाली भाषा में थे। उनके ज्यादातर गीत भारतीय संगीत शाश्त्र की ठुमरी शैली से प्रभावित होते थे जो हरेक सामान्य व्यक्ति के अंदरूनी भावों को पेश करने में बहुत कारगर साबित होते थे। आज उनके गीत शास्त्रीय संगीत सुनने वालो में और संगीत का रयाज़ करने वाले कलाकारों में यह अहम् स्थान रखते हैं   

भारतीय साहित्य को पश्चिम में और पश्चिमी साहित्य को भारत में लेन का श्रेय गुरुदेव को ही जाता है. उन्होंने भारतीय साहित्य की अच्छी रचनाये पश्चिमी लोगो तक पहँचाई और उन्हें बताया के भारतीय साहित्य कितना महान और कितना विशाल है। 

उन्होंने पश्चिमी साहित्यकारों की रचनाओं को भारतीयों के लिए अनुवाद किया ताकि भारत में रहने वाले सहित्य प्रिय लोग दूसरे देशों के साहित्य को पढ़ सके और दूसरे देशों के बारे में और गहराई से जान सके. वो पश्चिमी साहित्यकार शैक्सपेअर से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे।  

गुरुदेव चाहते थे के हरेक भारतीय शिक्षा ग्रहण करे. सबको शिक्षा हासिल करने का बराबर का अधिकार हो  शिक्षा ग्रहण करते हुए कोई छोटी जाती या बड़ी जाती न देखे. वो अक्सर कहते थे के “शिक्षा केवल शिक्षक द्वारा दी जा सकती है, शिक्षण विधि द्वारा नहीं।”

शिक्षक में त्याग , आत्मसमर्पण, लगन , सहयोग, प्रसन्ता अदि गन होने चाहिए, यही गन एक विद्यार्थी शिक्षक से ग्रहण करता है और शिक्षक से प्रभावित होता है। वो कहते थे के एक शिक्षक को मानसिक रूप पर तंदरुस्त होना चाहिए क्योकि एक तंदरुस्त मष्तिष्क ही दूसरे मष्तिष्क का विकास कर सकता है । 

गुरुदेव ने विद्यार्थीओ के मानसिक विकास क साथ साथ शारीरक विकास पर भी ज़ोर दिया  वो मानते थे के विद्यार्थी आने वाले भारत की नीव है अगर इनके शरीर तंदरुस्त होंगे तभी ये आने वाले भविष्य को और आने वाली चुनौतियों को अपने कंधे पर उठा सकेंगे।  

उनकी लिखी रचनाये आज के युवा लेखकों को  बहुत प्रभावित करती है. वो जिस तरिके से किसी व्यक्ति, व्यक्ति के मनोभावों को पेश करते थे वो हर कोई लेखक नहीं कर सकता. उन्होंने भारत को और बांग्लादेश को उनका सम्मान दिया है उनको उनका राष्ट्र गान दिया है.  

एक महान लेखक के अंतिम दिन 

रबिंदरनाथ एक महान लेखक थे. उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत सारी परेशानिया देखी और बहुत सारे दुःख सहे।  बचपन में उन्होंने अपनी माता जी को खो दिया और फिर उसके बाद अपनी पत्नी और 2 बच्चों को खो दिया और बाद में पिता जी भी उनका साथ छोड़ गए. पर इन सबसे जूझते हुए भी टैगोर जी ने अपना सहस नहीं छोड़ा और लिखना निरंतर जारी रखा.  

1937 में अचानक वो कोमा में चले गए. कुछ समय बाद 1940 में उन मूत्राशय में इन्फेक्शन हो गया. और उनका मूत्र निकास बिलकुल बंद हो गया. वो अपना इलाज आयुर्वेद से करना चाहते थे पर उनके मित्र बिधान रॉय और निल रतन सिरकार ने उन्हें अस्पताल जाकर इसका ओप्रशन करवाने की सलाह दी पर टैगोर जी ने मना कर दिया.  

इस दौरान 1940 में वो फिर से कोमा में चले गए और काफी लम्बे समय तक कोमा में रहे. उनके मित्रों ने बहुत जोर लगाया के वो अपना ओप्रशन करवा दे पर वो नहीं मने. आखिर 7 अगस्त 1941 में 80 साल की उम्र में एक महान लेखक इस दुनिया को छोड़ कर चला गया और अपने पीछे बहुत सारी बेशकीमती रचनए और यादें छोड़ गया.  

ऐसे महान लेखक को हमारा शत शत नमन है.  

Rahul Sharma

हमारा नाम है राहुल,अपने सुना ही होगा। रहने वाले हैं पटियाला के। नाजायज़ व्हट्सऐप्प शेयर करने की उम्र में, कलम और कीबोर्ड से खेल रहे हैं। लिखने पर सरकार कोई टैक्स नहीं लगाती है, शौक़ सिर्फ़ कलाकारी का रहा है, जिसे हम समय-समय पर व्यंग्य, आर्टिकल, बायोग्राफीज़ इत्यादि के ज़रिए पूरा कर लेते हैं | हमारी प्रेरणा आरक्षित नहीं है। कोई भी सजीव निर्जीव हमें प्रेरित कर सकती है। जीवन में यही सुख है के दिमाग काबू में है और साँसे चल रही है, बाकी आज कल का ज़माना तो पता ही है |

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