जब सिर्फ 21 सिख भिड़ गए थे दस हज़ार अफ़ग़ानिस्तानी पठानों से

अमेरिका के अफगानिस्तान से चले जाने के बाद लोगों के मान में ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अफगानिस्तान को जीतना बहुत मुश्किल है | 

क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों को अफगानिस्तान में मुंह की खानी पड़ी है | लेकिन क्या आप जानते हैं कि सिर्फ़ 21 सिखों ने 10000 अफगानों का इस तरह से मुकाबला किया था की उनकी बहादुरी के चर्चे आज भी किए जाते हैं |

हम बात कर रहे हैं बैटल ऑफ़ सरगढ़ी की जिसका नाम इतिहास में सुनहरी अक्षरों में दर्ज है | इस लड़ाई को इतिहास में सारागढ़ी के युद्ध (Battle of Saragarhi) के नाम से जाना जाता है |

सारागढ़ी की लड़ाई में सिर्फ 21 सिख सैनिकों ने 10000 अफ़गानी सैनिकों का डट कर मुकाबला किया था | इस लड़ाई को सिक्खों की वीरता की कहानियों में अहम् जगह दी गयी है |

सारागढ़ी की लड़ाई पर आधारित अक्षय कुमार की फिल्म केसरी बनी है जिसमें इस लड़ाई और उस समय के हालत को दिखाया गया है |

सारागढ़ी का युद्ध कहाँ हुआ

Saragarhi battle sikh soldiers

भारत के आजाद होने से पहले भारत और पाकिस्तान एक ही देश थे और अफगानिस्तान की सीमा भारत के साथ लगती थी | इसी सरहद पर ख़ैबर-पख्तूनवा इलाके के पास कोहाट कस्बे से 40 मील की दूरी पर ब्रिटिश सरकार की एक चौकी थी |

सरगरही की ये चौकी लॉकहार्ट और गुलिस्तान नाम के दो किलों के बीच में थी |

इस चौकी पर उस वक़्त 36 सिख रेजिमेंट के सिर्फ़ 21 सिख सैनिक मौजूद थे, जब 10000 अफगान सैनिकों ने इस पर हमला कर दिया |

ये सिख सैनिक चाहते तो आसानी से उस चौकी को छोड़कर भाग सकते थे लेकिन भागने की बजाए इन सिखों ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाना ज्यादा बेहतर समझा |

साथ ही वो इतनी बहादुरी से लड़े की अफगानियों को 7 से 8 घंटे लग गये उस किले पर पूरी तरह कब्जा करने में… |

अफगानियों ने क्यूँ किया हमला

अक्सर लोग कहते हैं कि सिखों ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था | असल में सिखों ने आज के अफगानिस्तान पर कब्जा नहीं किया था बल्कि अपनी कब्जाई हुई जमीन को वापिस हासिल किया था |

1748 में अहमद शाह दुर्रानी ने पंजाब पर हमला करके एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था |

जिसे 1800 में सिखों ने फिर से वापिस हासिल किया और अफ़ग़ानों को डूरण्ड लाइन से पीछे धकेल दिया, जो की आज पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान से लगती सीमा है |

1849 में जब ब्रिटिशर्स ने पंजाब की आर्मी को हराया तो ये पूरा क्षेत्र उनके कब्जे में आ गया |

जिस जगह पर अंग्रेज़ों ने लोकहार्ट, गुलिस्ताँ का किला और सारागढ़ी की चौकी बनाई थी वो पूरी ज़मीन किसी समय महाराजा रणजीत सिंह के अधीन थी |

जिस वक़्त अफघानियों ने सरगढ़ी के किले को तीनों और से घेर लिया उस वक़्त अफगानियों ने सिख सैनिकों से कहा की

“हमारी लड़ाई अंग्रेजों से है, तुमसे हमारा कोई झगड़ा नहीं है, तुम्हारी संख्या बहुत कम है, तुम लड़ाई में मारे जाओगे, हमारे सामने हथियार डाल दो तो हम तुम्हें जाने देंगे”

तब ईशर सिंह ने इसका जवाब देते हुए कहा

“ये अंग्रेजों की ज़मीन नहीं महाराजा रणजीत सिंह की जमीन है, जिसकी रक्षा हम आखिरी सांस तक करेंगे”

ये वो दौर था जब रूस और ब्रिटेन के बीच मध्य एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने की होड़ लगी थी | रूस जिस तरह से विस्तार कर रहा था उससे ब्रिटेन को भी चिंता होने लगी थी |

अपने इंडियन एंपाइयर को रूस से बचाने के लिए ब्रिटेन अफ़ग़ानिस्तान पर दो बार आक्रमण कर चुका था जिन्हें आंग्ल अफगान वॉर कहा गया |

दूसरे आंग्ल अफगान वॉर के बाद ब्रिटिशर्स ने अफगानिस्तान की कमान अमीर अब्दुर रहमान के हाथों में देखार अपनी सेना को वापिस बुला लिया था |

इसके बाद ब्रिटिश इंडिया की सीमा तय करने के लिए अब्दुर रहमान और ब्रिटिश इंडिया के बीच एक समझौता हुआ और डूरंड कमीशन बना |

जिसके बाद ब्रिटिश इंडिया और अफगानिस्तान के बीच की सीमा को डूरंड लाइन कहा गया जो आज भी इसी नाम से जानी जाती है |

Durand line afghanistan pakistan border

सीमा पर अपनी शक्ति को बढ़ाने के मकसद से ब्रिटिश सरकार ने किलों और चौकियों का निर्माण करवाया |

क्यूंकी डूरंड लाइन पश्तूनों के इलाकों को बांटती थी और पश्तून ब्रिटिशर्स का कब्जा नहीं चाहते थे इसलिए अफरीदी और ओरकज़ई क़बीले के लोग हमेशा ब्रिटिशर्स के किलों पर हमला करते रहते थे |

सारागढ़ी की लड़ाई कब हुई

सारागढ़ी की चौकी गुलिस्तान और लॉकहर्ट किले की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत मायने रखती थी | अफगानी लोगों ने सोचा की वो बहुत जल्दी सारागढ़ी की चौकी पर कब्ज़ा करके शाम तक दोनों किलों पर भी कब्ज़ा कर लेंगे |

लेकिन उनकी ये सोच पूरी नहीं हो सकी | 12 सितम्बर 1897 की सुबह अफगानी सारागढ़ी के किले को घेर लेते हैं |

करीब 10000 पठान अपने पूरे लाव लश्कर के साथ सभी किलों को फ़तेह करने के इरादे से आए थे |

जैसे ही संतरी ने पठनो के आने की खबर दी ईशर सिंह ने सिग्नल मेन गुरमुख सिंह को लोकहार्ट किले में अंग्रेज अफसर के संपर्क साधने को कहा |

अंग्रेज अफसर कर्नल हॉटन ने सिख सैनिकों को अपनी जगह पर बने रहने का आदेश सुनाया |

अब ईशर सिंग के सामने ये सवाल था की वो कैसे इस लड़ाई को लड़ें | वो युद्ध का मैदान छोड़कर 36 सिख रेजिमेंट का नाम खराब नहीं करना चाहते थे |

सारागढ़ी का युद्ध

लेकिन अपने साथी सैनिकों को मरने के लिए तैयार करना भी एक बड़ी चुनौती थी | क्योंकि वो जानते थे की इतनी बड़ी संख्या में पठनो से सिर्फ़ 21 सैनिक नहीं लड़ सकते |

सारागढ़ी के उन सैनिकों के पास गोलियाँ भी सीमित संख्या में थी | इसलिए ईशर सिंग ने सभी सैनिकों को आदेश दिया की पठनो को आयेज आने दे और नज़दीक आने पर ही उन्हें निशाना बनायें |

चौकी में मौजूद सैनिकों को किले की दीवारों और ऊंचाई पर होने का फायदा मिल रहा था |

लेकिन हज़ारों के सामने सिर्फ़ 21 सैनिक आखिरकार कितनी देर तक टिक सकते थे |

पठानों की सोच थी कि वो थोड़ी ही देर में किले पर कब्जा कर लेंगे | लेकिन पहले एक घंटे में ही उन्हें अंदाज़ा हो गया की ये लड़ाई आसान नहीं होने वाली थी |

इतिहास की किताबों में सारागढ़ी के युद्ध का वर्णन भले ही नहीं मिले लेकिन इस लड़ाई की तुलना स्पार्टा के लेयोनाइड्स के 300 सैनिकों की लड़ाई से भी की जाती है |

क्यूंकि वो भी सिर्फ 300 सैनिक थे और उन्होंने भी हार मानकर अपना स्वाभिमान खोने के बजाए लड़ कर मरना बेहतर समझा था |

इस लड़ाई में सिर्फ 21 वीर सिख सिपाहियों ने 10,000 अफगानी सैनिकों से लोहा लिया था | जो लड़ाई चंद पलों में ख़तम हो जानी थी वो सिक्खों के अविश्वसनीय साहस की वजह से पूरा 7 से 8 घंटे तक चली थी |

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किले के अंदर पहुँचने में ही लग गये कई घंटे

पहले घंटे में पठानों के 60 सैनिक मारे जा चुके थे जबकि सिखों की उस फौज से एक सैनिक भगवान सिंह शहीद हो गये थे |

इसके बाद जब अफगानो को किले तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था तो उन्होंने किले के आस पास की घास में आग लगा दी |

आग की लपटों से उठने वाले धुएं का सहारा लेकर पठानों ने किले की दीवारों पर चढ़ने की कोशिश की | पर सिखों ने उन पर गोलियां बरसाना जारी रखी जिससे पठानों की ये चाल भी कामयाब नहीं हो पाई |

सिख सैनिकों की गोलियाँ ख़तम हो रही थी, तब सिग्नल मान गुरमुख सिंह ने फिर से कर्नल हॉटन से संपर्क किया | कर्नल हॉटन ने सांकेतिक भाषा में समझाया की गोली तभी चलाएं जब आप निश्चिंत हो की गोली दुश्मन को ही लगेगी |

हालांकि उस वक़्त तक टेलीग्राफ का आविष्कार हो चुका था, लेकिन लॉकहार्ट और गुलिस्ताँ किलों के बीच बिछी टेलीग्राफ की तारों को कबीले के लोग काट दिया करते थे | इसलिए दोनों किलों में आपसी संपर्क बनाए रखने के लिए सरगरही की चौकी बनाई गयी थी | जो की ऊंचाई पर थी और आईने से धूप को रिफ्लेक्ट कर मोर्स कोड को भेजा जाता था |  

पठानों ने किले के अंदर पहुँचने के लिए किले की दीवार के नीचे गड्ढा खोदना शुरू कर दिया | वो किले के बाहर एक ऐसी जगह तक पहुँच गये जहाँ से उन्हें किले के अंदर से कोई नहीं देख पा रहा था |

जबकि गुलिस्ताँ किले के कमांडर मेजर दे वॉय उन पठानों को किले की दीवार में छेद करते हुए देख पा रहे थे | मेजर ने सारागढ़ी के जवानो तक संदेश भेजे लेकिन सिग्नल मेन गुरुमुख सिंग दूसरे किले लॉकहार्ट से आने वाले संदेशों को पढ़ने में व्यस्त थे |

कुछ ही देर में पठान किले के अंदर आ चुके थे | बहुत से सिख सैनिक पहले ही मारे जा चुके थे पर जो बचे थे वो भी लड़ कर मर मिटने को तैयार थे |

पठानों ने किले के दरवाजे को आग लगा दी और दीवारों पर सिख सैनिक नहीं होने से सीढ़ियों के सहारे भी किले के अंदर दाखिल हो गए |

ईशर सिंह ने अपने बचे हुए साथियों से कहा की अपनी बंदूकों पर चाकू लगा लें और जो भी पठान दरवाजे से अंदर आए उस पर गोलियाँ चलायें या चाकुओं से हमला करें |

थोड़ी देर बाद ईशर सिंह वहाँ अकेले रह गये थे | जब ईशर सिंह ने इतने सारे दुश्मनो को इतनी नज़दीक देखा तो हाथों से लड़ना शुरू कर दिया | ईशर सिंग भी लड़ते लड़ते शहीद हो गये |

गार्ड रूम से एक सैनिक पठानों पर गोलियाँ चला रहा था जिसे पथनाओ ने जिंदा जलाने के लिए कमरे को आग लगा दी |

पर उस सैनिक ने बहुत से पठानों को आग की लपटों में भी साथ ले लिया |

अंग्रेज अफसर को सिग्नल भेजने वाले गुरुमुख सिंह ने अपने आखिरी संदेश में बताया की पठान अंदर आ चुके हैं और लड़ने की इजाजत माँगी |

गुरुमुख सिंह ने अकेले होने के बावजूद सरेंडर करने की बजाए लड़कर मरना बेहतर समझा और सैनिकों के सोने के कमरे में पोजीशन ले ली |

गुरुमुख सिंह ने अकेले ही कम से कम 20 पठानों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया | आख़िर में पठनो ने पूरे किले में आग लगा दी | मुट्ठी भर सिख सैनिकों ने 6 घंटे से भी ज़्यादा समय तक पठानों को रोके रखा |

जब ब्रिटिश सेना की तरफ से मदद पहुँची तब तक बहुत देर हो चुकी थी |

14 सितंबर को ब्रिटिश फौज किले में पहुंची और तोपों से पठानों पर हमला कर दिया | पठान किले को छोड़कर भाग गये | किले के अंदर और बाहर लाशों के ढेर लगे थे |

सिर्फ़ 21 सिखों ने 180 से ज़्यादा अफगानियों को मार कर पठानों को सबक सीखा दिया था |

यूके की संसद में भी दिया गया सम्मान

सिख सैनिकों की बहादुरी को सलाम करते हुए इस लड़ाई को दुनिया की सबसे बड़े लास्ट स्टैंड में जगह दी गयी |

और ब्रिटिश संसद के सदस्यों ने 21 सैनिकों को स्टॅंडिंग ओवेशन दिया |

हालांकि लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग अपने लेख में बताते हैं की, उनके और जय सिंह-सोहल की किताब सारागढ़ी: द फॉरगॉटन बैटल के अनुसार इन दोनो बातों के कोई प्रमाण नहीं मिलते |

सारागढ़ी में मारे गये सैनिकों को ब्रिटिश सरकार की तरफ से उस समय का सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट देने की घोषणा भी की गई | ये सम्मान परमवीर चक्र के बराबर माना जाता है |

एच एस पनाग कहते हैं कि सारागढ़ी में उन सैनिकों ने जो किया वो अद्भुत था लेकिन अक्सर इस लड़ाई में पठानों की संख्या और कुछ बातों को बढ़ा कर दिखाया जाता है |

और इस लड़ाई में 21 नहीं बल्कि 22 सैनिक मारे गये थे जिनमें एक दाद था जो कि सैनिकों के लिए खाना बनाना और हथियार लाने जैसे काम करता था |

सारागढ़ी के दिन को याद रखने के लिए 36 सिख रेजिमेंट को 12 सितंबर को छुट्टी भी दी जाती है |

Robin Mehta

मेरा नाम रोबिन है | मैंने अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की थी इसलिए इस ब्लॉग पर मैं इतिहास, सफल लोगों की कहानियाँ और फैक्ट्स आपके साथ साँझा करता हूँ | मुझे ऐसा लगता है कलम में जो ताक़त है वो तलवार में कभी नहीं थी |

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